कोल्हापुर की महालक्ष्मी (अम्बाबाई )
कोल्हापुर की महालक्ष्मी (अम्बाबाई )
महाराष्ट्र भारत
का एक ऐसा एक लौता राज्य है जिसे संतो की भूमि कहा जाता है। यु तो दश में कई बड़े बड़े तीर्थस्थल लेकिन उन सब में भी महाराष्ट्र का अपना एक अलग महत्त्व है मध्यकालीन युग में जो भक्ति रस
महाराष्ट्र के संतो ने बहाया है वह कोई और
राज्य न कर सका। चाहे वह संत ज्ञानेश्वर
हो संत नामदेव हो या संत तुकाराम, मुक्ताबाई,जनाबाई। कितने ही नाम गिनाये जा सकते है।
महाराष्ट्र वह राज्य है जिसने जहा स्वराज्य के संस्थापक वीर छत्रपति शिवाजी महाराज
को जन्म दिया है। जिनको आज भी महाराष्ट्र के युवा बल वृद्ध भगवन के सामान पूजते है।
भारत में जो 51 शक्ति पीठ है उसमे से साढ़े तीन शक्तिपीठ
महाराष्ट्र में है।
१) महालक्ष्मी मंदिर ( कोल्हापुर)
२) तुळजाभवानी (तुळजापूर)
३) रेणुका देवी (माहुर )
महालक्ष्मी मंदिर (अम्बाबाई मंदिर कोल्हापुर)
कोल्हापुर में स्थित यह माता क पूर्ण शक्तिपीठ है। अभी
जो मंदिर है उसका निर्माण 700AD में कन्नड़ के चालुक्य साम्राज्य के राजा कर्ण दीव ने
किया है। पर उससे भी पहले यह मंदिर था ऐसा संशोधकों का मानना है। माना जाता है शिलाहार
राजाओ के पूर्व कर्हारक (आज का कराड) में सिंध राजाओ द्वारा इसका निर्माण किया गया
है।
माता की मूर्ति 0. 91 मीटर ऊँचे पथरपर माता की लगभग ३ फ़ीट
ऊँची प्रतिमा राखी हुई है जो काले पत्थर से बानी हुई है।
इस मंदिर में चार हातोवाली मूर्ति के सर पे मुकुट है जो
की गहनों से सजाया है जिसका वजन करीब ४० kg
है। मदिर में एक दिवार पर श्री यंत्र खोदकर बनाया गया है। देवी के चार हाथ है
जिनमे से दाहिने निचले हाथ में निम्बू फल,
ऊपरी दाये हाथ में ढाल,निचले बाये हाथ में पानपात्र है। देवी का मुख पश्चिम
दिशा की ओर है जो बाकि मंदिरो से अलग है क्योकि बाकि मंदिरो में मूर्ति का मुख पूर्व
या उत्तर दिशा की ओर रहता है। पश्चिम दिशा
की दिवार पर एक झरोखा है जिससे सूर्य की किरणे हर साल मार्च और सितम्बर के महीने में
शाम के समय देवी के मुख से होते हुए चरणों तक जाती है। इसी घटना को कहा जाता है की
सूर्य भगवन सल में दो बार देवी के चरण छूने आते है। यही पर्व "रथ सप्तमी" नाम से तीन दिन तक मनाया जाता ह।
इस मंदिर में
गरुड़ मंडप ,सभा मंडप इत्यादि कला कृतियाँ दिखाई पड़ती है जो की १८४४ और १८७६
की है।
महालक्ष्मी कथा
प्राचीन काल में देवो और दानवो ने अमृत की अभिलाषा से समुद्र मंथन किया तब उसमे से बहुत से अमूल्य रत्न निकले जिसमे से एक ऐसा रत्न भी था जो दुनिया की सारी सुंदरता ,रूप गुण ,ऐश्वर्य ,संपत्ति की स्त्री रूप था उनका नाम था महालक्ष्मी । जिन्हीने अपनी उत्पत्ति के साथ ही भगवन विष्णु को पति रूप में प्राप्त कर लिया।
यद्यपि महालक्ष्मी के पास चुनाव के बहुत से पर्याय उपलब्ध थे।पहले थे असुर जो तामसिक प्रवृती के दुसरो पर अत्याचार करने वाले, अपने धन को खुद के भौतिक सुख साधन में खर्च करने वाले,व्यभिचरी इत्यादि दुर्गुणों से परिपूर्ण थे। ऐसे लोगो के पास कभी लक्ष्मीजी नहीं रह सकती जो आज के ज़माने में भी तर्कसंगत है। दूसरे थे देव जो अपनी शक्ति पर अभिमान करते थे। यदपि वे सतोगुणी थे फिर भी उनके मन में इस बात का अभिमान तो था ही की वे ही इस जगत की स हर सुन्दर वास्तु के अधिकारी थे। वे देव तो थे पर वे निष्काम नहीं थे उनके मन ने भी अभिलाषाएं थी। तीसरे थे साधु संत ,ऋषि मुनि इत्यादि। इनके मन में भी अपने कर्मकांड ,जप तप का अभिमान था।
ये तीनो ही प्रकार के लोग महालक्ष्मी के लिए अयोग्य थे। तो योग्य कोण और कैसा वर था। एक ऐसा जिसके अंदर जगत की सभी शक्तिया ,विद्याये, योग्यताए निवास करती हो ,जो सर्वशक्तिमान हो, इतना होने पर भी जिसके मन में इसका जरा भीं अभिमान न हो ,जो सत रज तम इन तीनो गुणों के पार हो। जो सगुन होते हुए भी निर्गुण हो। ऐसे ही व्यक्ति के पास लक्ष्मी जी गयी। और आज भी ऐसे ही व्यक्तियों के पास लक्ष्मी निवास करती है।
महालक्ष्मी जगत की सभी चल अचल ,चेतन अचेतन संपत्ति की प्रतिक है। इनके पुराणों में आठ रूप बताये गए है। १)धनलक्ष्मी २)धान्यलक्ष्मी ३)धैर्यलक्ष्मी ४)शौर्यलक्ष्मी ५)कीर्तिलक्ष्मी ६)विनयलक्ष्मी ७)राज्यलक्ष्मी ८)संतानलक्ष्मी
इतिहास में सबसे पहले माता महालक्ष्मी का उल्लेख ईस्वी सं पूर्व २५० में मिलता है। माता का सबसे पहला स्वरुप साँची व् बोधगया में महाराज अशोक द्वारा निर्मित स्तूपों पर गजलक्ष्मी के रूप में मिलता है। जो की सभी स्वर्ण रत्नादि आभूषणों से युक्त सहस्त्रदल कमल पर विराजमान है और उनको दोनों और दो श्वेत हाथी खड़े हुए है।
गुप्त साम्राज्य के राजा जो की विष्णु और लक्ष्मी के भक्त थे ,उन्होंने अपने शासनकाल में लक्ष्मी व् गरुड़ केचित्र वाले सिक्के जारी किये थे। जो की पुरातत्व विभाग के संग्रहालयों में आज भी उपस्थित है। उनके बहोत से सिक्को पे लक्ष्मी जी सभी स्वर्ण आभूषणों से युक्त सिंह पर विराजमान ,मोर पर विराजमान , कमल पुष्प पर विराजमान ,सिंहासन पर विराजमान देखि जा सकती है ( source) गुप्त साम्राज्य ने लक्ष्मी जी को राजलक्ष्मी और वैभवलक्ष्मी इन प्रारूपों में स्वीकृत किया था।
गुप्त साम्राज्य के बाद चालुक्य ,राष्टकूट ,शिलाहार ,यादव इनसभी साम्राज्यों की भी माता महालक्ष्मी आराध्य दैवत रही है। चौथी व् पांचवी शताब्दी में महालक्ष्मी के बहुत से मंदिर भारतवर्ष में बने।
महानुभाव पंथ के निर्माता स्वामी चक्रधर पभु जिन्होंने १२ वी सदी में सम्पूर्ण भारत भ्रमण किया था वे लिखते है की सम्पूर्ण भारत भर में २७ ऐसे महालक्ष्मी के मंदिर है जिनकी बनावट ,वास्तु शिल्प कला इत्यादि कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर के सामान ही है। महाराष्ट्र के शिरूर तालुका में २४ दिसम्बर १०४९ का एक शिलालेख मिलता ही जो की महाराजा मरासिंघ जो की राजवर्मन का उत्तराधिकारी था , कोल्हापुर की माता महालक्ष्मी का भक्त था। उसने महालक्ष्मी को सिंहवाहिनी कहा है और दुर्गा का दूसरा अवतार कहा है।
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महालक्ष्मी
पूजा
मंदिर में दिन भर माता की पूजा होती रहती है जिसका वर्णन
निचे दिया गया है।
सुबह
४.३० बजे
घाती दरवाजे पर
लगी घंटी बजती है,दर्शन के लिए आये हुए भक्तो को जगाती है और अम्बाबाई के कपट खुलते है।
सुबह
– ४.३० से ६.०० काकड़ आरती
काकड़ आरती में अम्बाबाई के भजन कीर्तन व् आरती का कार्यक्रम
होता है। उसी तरह की पूजा मातृलिंग ,महाकाली ,श्री गणेश ,श्री यंत्र की भी की जाती
है।
सुबह
- ८ बजे षोडशोपचार महापूजा
फिर से एक बार
घाती दरवाजे की घंटी बजती है जी की माता के
षोडशोपचार महापूजा की सूचक होती है। इस वक्त माता का विविध जल पदार्थो से अभिषेक किया जाता है। उन्हें सुगन्धित पुष्प स्वर्ण मुकुट और
स्वर्ण पादुका अर्पण किये जाते है।
सुबह
- ९.३० बजे नैवेद्य
अर्पण होता
है।
दोपहर
- ११.३० बजे दोपहर महापूजा
महापूजा के बाद देवी को महानैवेद्य अर्पित किया जाता है
जिसमे आम तौर पर चावल ,दाल पूरणपोळी,चटनी, कोशिंबिरि, रोटी यह सब होता है। कुछ विशेष
पर्व पर जैसे गोकुलाष्टमी ,महाष्टमी ,दिवाली के दो दिन पंचपकवानो का विशेष नैवेद्य
अर्पण किया जाता है।
दोपहर
- ०१.३० बजे अलंकार पूजा
इस पूजा में देवी का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें स्वर्ण
आभूषण पहनाये जाते है। मस्तक पर चंदन और कुमकुम का लेप लगाया जाता है। उन्हें कोल्हापुरी
साड़ी ,साज,किरीट कुण्डल ,नथनी ,मंगलसूत्र आदि पहनाये जाते है।
रात-
८ बजे
धुप आरती
धुप आरती होती है देवी को हल्का नैवेद्य प्रदान किया जाता
है सिर्फ शुक्रवार को ही महानैवेद्य अर्पण
किया जाता ह।
रात
- १० बजे
शेजारती
इस आरती के बाद सभी आभूषण उतार के देवी के मंदिर के कपाट
बंद हो जाते है।
दोस्तों जल्द ही बाकि बचे शक्तिपीठो की पोस्ट भी अपडेट कर दूंगा
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