कालीघाट मंदिर ( कलिका मंदिर, kolkata)
कालीघाट मंदिर (कालिका मंदिर, kolkata)
नमस्कार दोस्तो इस लेख में हम जानेंगे कोलकाता के प्रसिद्ध कालिकादेवी (कालीघाट) मंदिर के बारे में।
यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में है। इसके लिए आपको पूरा कोलकाता पार करके जाना पड़ेगा। यह हुगली नदी के पूर्व किनारे पर बसा है निकटतम रेलवे स्टेशन हुगली है और मेट्रो स्टेशन कालीघाट है। मंदिर के नाम पार कोलकाता शहर का नाम पड़ा साथ में नदी किनारे के घाट का नाम कालीघाट भी इसी मदिर के नाम पार पड़ा। मंदिर 17 वी शताब्दी का माना जाता है
इसी मंदिर से ३० km पास में दक्षिणेश्वर काली मदिर है जो की हुगली नदी के एकदम किनारे पर बसा हुआ है। कुछ sources में आपको कालिकाशक्तिपीठ के नाम पार इस मंदिर को भी दिखाया जाता है जो की बिलकुल असत्य है। दक्षिणेश्वर काली मंदिर शक्तिपीठों में नहीं आता यह एक अलग मंदिर है जिसका निर्माण 1847 में जान बाजार की महारानी रासमणि के द्वारा किया गया और यह निर्माण 1855 में जाकर पूर्ण हुआ था।
मंदिर की प्रतिमा भगवान शिवजी की छाती पे पैर रखे हुए है। उनके गले में नर मुंडो की माला शोभा प् रही है। मूर्ति में देवी की जीभ निकली हुई है जो की सोने की है
माँ की मूरत का चेहरा श्याम रंग में है और आँखे और सिर सिन्दुरिया रंग में है | सिन्दुरिया रंग में ही माँ काली के तिलक लगा हुआ है और हाथ में एक फांसा भी इसी रंग में रंगा हुआ है | देवी को स्नान कराते समय धार्मिक मान्यताओं के कारण प्रधान पुरोहित की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है |
माँ कालिका के अलावा शीतला, षष्ठी और मंगलाचंडी के भी स्थान है।
माना जाता है की यह मंदिर 1809 के करिब बनाया गया था | इस शक्तिपीठ में स्थित प्रतिमा की प्रतिष्ठा कामदेव ब्रह्मचारी (सन्यासपूर्व नाम जिया गंगोपाध्याय) ने की थी। साथ ही यह कोलकाता मेट्रो का एक हिस्सा भी है |
मान्यता के नुसार सती माता के शरीर के दाये पैर की चार उंगलिया यहाँ गिर गयी थी।
माता की उत्पत्ति और पराक्रम
आदिकाल में जब शुम्भ निशुम्भ नामक दो महादैत्यो ने इन्द्रादि देवताओ को स्वर्ग से निकल दिया था तब सभी देवता हिमालय पर श्री अम्बिका जी की स्तुति करने लगे। पास से ही शिवपत्नी पार्वती जी गंगा जी के जल में स्नान करने के लिए जा रही थी। श्री पार्वती जी ने सहज भाव से पूछा की हे देवताओ आप किसकी स्तुति कर रहे है। इतना कहने पर ही श्री पार्वती जी के शरीर कोष से महात्रिपुरसुन्दरी श्री अम्बिका जी का प्रादुर्भाव हुआ और उन्होंने कहा " हे देवी शुम्भ निशुम्भ के द्वारा सताए हुए ये देवता मेरी ही स्तुति कर रहे है "। अम्बिका जी के प्रादुर्भाव से माता पार्वती का शरीर काला पड़ गया और वह हिमालय पे रहने वाली कालिका नाम से विख्यात हुई।
रौद्र स्वरूपा कालिका जी ने युद्ध में देवताओ के परम शत्रु चण्ड मुण्ड नामक दो महादैत्यो का संहार किया तब उनका नाम चामुंडा पड़ा । उसके बाद रक्तबीज नामक दैत्य विश्व के लिए पीड़ादायक बना था उसको भी माता काली ने बड़ी अनोखे तरीके से यामधाम पहुंचाया। रक्तबीज को यह वरदान था की उसके रक्त की एक भी बून्द जब धरती पर गिरेगी तब उसी के समान शक्ति और पराक्रम वाला दूसरा योद्धा तैयार हो जाता था। इस बात से अनजान देवियो ने उसे अपने अपने अस्त्र से बुरी तरह घायल कर दिया और उसके रक्त की धाराओं से इतने अनगिनत रक्तबीज तैयार हो गए थे की उनसे सारी सृष्टि भर गयी थी। इस समस्या का समाधान करने के लिए देवी अम्बिका ने काली से कहा " हे कालिके तुम अपना मुख और भी विस्तार से खोल दो और इन असुरो का रक्त अपने मुँह में भरती जाओ इस प्रकार देवी कालिका जी ने सरे रक्तबीजो को होने मुख में डालकर चबाना शुरू कर दिया जिससे की उसके रक्त की एक भी बून्द जमीन पर नहीं गिरी और नए रक्तबीज जो कालिका जी के मुख में तैयार होते उन्हें भी वे चबा जाती। इस भयानक कृत्य के बाद कालिका जी के द्वारा रक्तबीज जैसे दुर्दांत दैत्य का अंत हुआ।
अघोर और तान्त्रिक साधना का केंद्र :
माँ काली अघोरिया क्रियाओ और तंत्र मंत्र की सर्वोपरी देवी के रूप में जनि जाती है और साथ ही यह मंदिर इस देवी का शक्तिपीठ है | इन्ही कारणों से यह अघोर और तान्त्रिक साधना का बहूत बड़ा केंद्र बना हुआ है
माँ काली तांत्रिकों की आद्यशक्ति देवी है। दुनिया में जो कुछ तंत्र मन्त्र साधना है वह सब माँ काली के वशीभूत है। कलकत्ता के ३ तंत्र स्थलियो में से एक कालीघाट मंदिर है। मंदिर के निकट केवड़तला श्मशानघाट को किसी ज़माने में शवसाधना का केंद्र माना जाता था। १८६२ में इस श्मशानघाट का निर्माण किया गया था। इस दौरान महिला तांत्रिको की संख्या भी अच्छी खासी थी।
क्या है शवसाधना
अघोरियों द्वारा खास तौर से श्मशान में तीन प्रकार की साधनाएं की जाती हैं जिनमें श्मशान साधना, शव साधना और शिव साधना शामिल हैं। प्रमुख रूप से इन साधनाओं को अघोरी प्रसिद्ध शक्तिपीठों जैसे – कालिका, कामाख्या शक्तिपीठ, तारापीठ, बगुलामुखी या भैरव आदि स्थानों पर करते हैं
इन साधनाओं को करने के अलावा संसार में इनका कोई और लक्ष्य नहीं होता और साधना के बाद या अन्य समय में ये अघोरी हिमालय के जंगलों में निवास करते हैं। इन्हें साधारण तौर पर देखा भी नहीं जा सकता ना ही ये अघोरी तांत्रिक समाज में शामिल होते हैं। परंतु सिंहस्थ या कुंभ के समय इनके दर्शन आसानी से किए जा सकते हैं।
शव-साधना का अर्थ है, श्मशान में स्वयं के शरीर की अनुभूति को शव के समान निःसत्व करके, अपने उद्देश्य की मानसिक रूप से साधना करना है। अघोरियों द्वारा की जाने वाली श्मशान साधना में श्मशान को जगाकर साधना की जाती है। शव साधना के लिए किसी शव का होना आवश्यक है। अघोरी यदि पुरुष है, तो उसे साधना के लिए स्त्री के शव की आवश्यकता होगी और यदि अघोरी स्त्री है तो शव साधना के लिए पुरुष का शव आवश्यक है। परंतु शव का चयन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है कि शव किस श्रेणी का है। किसी चांडाल, दुर्घटना में मरे हुए व्यक्ति या फिर अकारण मरने वाले युवा का शव, शवसाधना के लिए अधिक उपयुक्त माना जाता है।
मंदिर की समय तालिका :
मंगलवार और शानिवार के साथ अस्तमी को विशेष पूजा की जाती है और भक्तो की भीड भी बहूत ज्यादा होती है |
यह मंदिर सुबह 5 बजे से रात्रि 10:30 तक खुला रहता है | बीच में दोपहर में यह मंदिर 2 से 5 बजे तक बंद कर दिया जाता है | इस अवधि में भोग लगाया जाता है | सुबह 4 बजे मंगला आरती होती है पर भक्तो के लिए मंदिर 5 बजे ही खोला जाता है
नित्यपूजा: 5:30am से 7:00am
भोगराग: 2:30pm से 3:30pm
संध्याआरती : 6:30 pm से 7:00 pm
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